तुमने...
लहरों की तरह आकर,
छू लिया- किनारा मेरे मन का।
... और फिर चले गए,
लहरों की ही तरह....।
इस पर लिखी
मेरे सपनों की इबारत
घुल गई नमकीन पानी में ।
पीछे छूट गई,
एक नमी, खारापन और....
.... सिर्फ तनहाई ।।
कुछ बातें अनकही.....
तुमने...
लहरों की तरह आकर,
छू लिया- किनारा मेरे मन का।
... और फिर चले गए,
लहरों की ही तरह....।
इस पर लिखी
मेरे सपनों की इबारत
घुल गई नमकीन पानी में ।
पीछे छूट गई,
एक नमी, खारापन और....
.... सिर्फ तनहाई ।।
करीब था इतना पैरहन जैसे ।
हो गया दूर यूं उतरन जैसे ।।
वो निकलता ही नहीं जेहन से ।
कोई फंस गया है उलझन जैसे ।।
ऐसे संभाले हैं लम्हे यादों के ।
कॉपी में रखी कतरन जैसे ।।
हर तरफ वो ही आता है नजर ।
कायनात बन गई दरपन जैसे ।।
'देव' अब भी साथ रहते हैं ।
दिल में हमारे धड़कन जैसे ।।
पैरहन- शरीर पर धारण किए जाने वाले वस्त्र (इनसे ज्यादा करीब क्या हो सकता है)
उतरन- त्याग दिए गए वस्त्र (जिन्हें फिर पहनना न हो)
मैं पानी तूं गंगाजल है,
मैं चिंगारी तूं पावक
तुझमें मिलूं बनूं तुझसा मैं
रहूं वृथा क्यों कहो विलग
जोड़-जोड़ अपने जैसा कर
मन। तन, जीवन में अमृत भर
आ-आ-आ सन्निकट आ
कर दे पावन आलिंगन कर
हे प्रभू! नहीं मैं तुझसा
और तुझसा भले ना हो पाऊं
और सत्य कहूं अपने मन का
तो तुझसा ना होना चाहूं
तूं मणिकांचन
अमरीक मणि
या स्वयं मणिधर का स्वामी
मैं कांच तुच्छ, टूटा-बिखरा
दर्शन में भी कहलाता पापी
तूं गुलाब, मैं महज शूल
तूं चंदन, मैं चरण धूल
तूं अमित तेज, मैं शुष्क दीप
पर तूं मोती गर
मेरा हृदय सीप
तूं रहे वहां दे छुअन मुझे
फिर अलग कहां पाऊं मैं तुझे
तो अब यह कर
बस राह दिखा
और अपना जान मुझे अपना
तेरे चरणों में प्राण तजूं
हे ईश! मेरा यही सपना...
मन मेरा कच्ची मटकी सा,
उलटा-पलटा फूट गया।
पड़ा हथोड़ा कड़े बैन का,
दर्पण सा मन टूट गया॥
नहीं समर्पण तेरा मांगा,
चाहा न्यौछावर होना।
कृत्रिमता के तीक्ष्ण ताप से,
प्रेम सरोवर खूट गया॥
भूल गए कसमें वादे सब,
अहं हुआ ऐसा हावी।
हाथों धरा हाथ अपनों का,
पल भर में ही छूट गया॥
उपहासों का पात्र बना मैं,
रख चुप्पी पर मुस्काया।
उसकी जब बारी आई वो,
ज़रा चुहल में रूठ गया॥
रखा भरोसा जिस-जिस पर भी,
उसी-उसी ने छला मुझे।
अपना हित अपना सुख देखा,
"देव" जमाना लूट गया॥
- देवेश
देववाणी की शुरुआत के बाद आज पहली मर्तबा गद्य में लिख रहा हूं, पर बात ही कुछ ऐसी है कि लिखना ज़रूरी लग रहा है। दरअसल, बीते दो दिन में दो घटनाओं ने ऐसा जटिल सवाल खड़ा किया, जिसका जवाब ढूँढना मेरे बस में तो बिल्कुल भी नहीं। सोचा; आप से ही बतिया कर कुछ हल मिल जाये।
बीते शुक्रवार को राजस्थान के दूसरे बड़े शहर जोधपुर की एक अदालत ने सुमन नामक एक महिला के पति, सास-ससुर और दो जेठ को दस साल की सजा सुना दी। इन सभी ने सुमन को जिंदा जला दिया था। वैसे तो दहेज के लिए बेटियों का जलना-पिटना नई बात नहीं, लेकिन सुमन को जलाने वालों ने सिर्फ उसे ही नहीं, उसकी कोख में पल रही ढाई माह की जान को भी लालच की आंच में फूंक डाला। सात जन्म तक साथ निभाने और रक्षा करने का वचन भरने वाले पति ने उसके हाथ-पांव बांधकर आंगन में ला पटका तो सास-ससुर और जेठ ने केरोसीन डालकर ऐसे जला दिया, गोया सुमन कोई इंसान नहीं बल्कि घास की बनी मूरत थी और मालिकों ने गुस्से या मौज में उसे आग दिखा डाली। इस दौरान वे लोग ये तक भूल गए कि सुमन के गर्भ में एक शिशु की सासों का ताना-बाना भी बुना जा रहा है। ...और वह 'जीव' तो लेन-देन करने वाली इस दुनिया की रवायतें तक नहीं जानता। मगर, शिशु की किलकारी की बजाय उन्हें उस पैसे में खुशियां नज़र आ रही थी, जो सुमन लाती भी तो कमाकर नहीं, अपने पिता से मांग कर...।
खैर, ख़बर-नवीस के तौर पर अपने अखबार में यह ख़बर मुझे छापनी थी, सो दायित्व निभाया और जिस शनिवार को यह समाचार छपा उसी दोपहर घर के नजदीक ही एक अलहदा नजारा देखकर मन मुस्कुरा उठा। दरअसल, चार-पांच साल की एक बच्ची कहीं जा रही थी और मां के सुरक्षा संबंधी आदेश-निर्देश के कारण वह सड़क से लगती दीवार से चिपक कर चल रही थी। तभी एक खूबसूरत तितली कहीं से आई और बच्ची के इर्द-गिर्द मंडराने लगी। ऐसा लग रहा था मानो तितली ने उस नन्हीं बालिका को कोई फूल समझ लिया हो। उधर, वह नन्हीं कली तितली के इस स्नेह प्रदर्शन से डरकर ठिठक गई। यकीन जानिए यह दृश्य देखकर मुझे सीधे सुमन की याद हो आई और एक सवाल ने झिंझोड़ दिया कि फूल से भी संवेदनशील तितली और इससे भी अधिक सुकोमल होती हैं बेटियाँ; फ़िर बेटियों को लोग क्यूं जला देते हैं....???
हर तरफ ही देखिये मचता हुआ बवाल।
बेटी क्या इन्सां नहीं, अपना यही सवाल...।।।
नेह का धागा सुलगता, हे सखी!
क्रोध की अग्नि में जलता, हे सखी!!
मौन में नवगुण भले कहले कॊई!
मौन में विद्रोह पलता, हे सखी!!
चाल चौसर की चले शातिर कॊई!
समय ऎसी चाल चलता, हे सखी!!
क़द्र जानॊ वक्त की तॊ ठीक वरना!
वक्त बीते हाथ मलता, हे सखी!!
"देव" में दुर्गुण तॊ गुण भी देखिए!
क्या तुझे हर पल ही खलता, हे सखी!!
- देवेश