Friday, December 4, 2009

तनहाई

तुमने...

लहरों की तरह आकर,

छू लिया- किनारा मेरे मन का।

... और फिर चले गए,

लहरों की ही तरह....।

इस पर लिखी

मेरे सपनों की इबारत

घुल गई नमकीन पानी में ।

पीछे छूट गई,

एक नमी, खारापन और....

.... सिर्फ तनहाई ।।

Sunday, October 11, 2009

...बड़ी जालिम है !!!

लो फिर गई याद बड़ी जालिम है
पहली मुलाकात बड़ी जालिम है

उम्र भर साथ निभाना था जिसको
राह में छोड़ गई हाथ बड़ी जालिम है

हमने होठों में दबा के बहुत रखा पर,
आँख से ढुलक गई बात बड़ी जालिम है

वो जो उजाले के सफर में निकले हैं,
रोकती उनको घनी रात बड़ी जालिम है

'देव' समझे इशारे जब तक उनके
तब-तलक हो गई घात बड़ी जालिम है

- देवेश

Wednesday, September 2, 2009

शाश्वत

वह था, है..., रहेगा,
मिट नहीं सकता वजूद उसका
ढांप ले भले ही अहं की चादर से...
ये तो था, है... और रहेगा,
यूं ही बरकरार...
हमेशा.... हमेशा....
- देवेश

Saturday, August 22, 2009

करीब था पैरहन जैसे...

करीब था इतना पैरहन जैसे ।

हो गया दूर यूं उतरन जैसे ।।


वो निकलता ही नहीं जेहन से ।

कोई फंस गया है उलझन जैसे ।।


ऐसे संभाले हैं लम्हे यादों के ।

कॉपी में रखी कतरन जैसे ।।


हर तरफ वो ही आता है नजर ।

कायनात बन गई दरपन जैसे ।।


'देव' अब भी साथ रहते हैं ।

दिल में हमारे धड़कन जैसे ।।

पैरहन- शरीर पर धारण किए जाने वाले वस्त्र (इनसे ज्यादा करीब क्या हो सकता है)
उतरन- त्याग दिए गए वस्त्र (जिन्हें फिर पहनना न हो)

Thursday, July 23, 2009

जब हमें पहचान हो गई...

अच्छे-बुरे की जब हमें पहचान हो गई ।
चेहरे से उनके देखिए मुस्कान खो गई ॥
साहिल को चूमने के जुनूं में उठी लहर ।
पल भर में कई बस्तियां वीरान हो गईं ॥
हैरान, फिक्रमंद, परेशान सा फिरता है ।
लगता है उसकी बेटियां जवान हो गईं ॥
जानी है किसी ने, कोई जान सकेगा ।
तेरी-मेरी बात बिन जुबान हो गई ॥
तुम साथ थे हमारे तो फासले कहां थे ।
जब हाथ तुमने छोड़ा थकान हो गई ॥
कीमत चुका लो, जाओ, तुम भी खरीद लो ।
कसमें, वफा, मुहब्बत सामान हो गई ॥
रात भर गफलत की तू पीता रहा है 'देव'
छोड़ प्याला देख अब अजान हो गई ॥
- देवेश

Tuesday, June 2, 2009

कोई समझ सके तो...




जिन्दगी अब मौत जैसी बन गई,

जी रहे हैं लाश बनकर हम यहां।

ख्वाब-अरमां-जुस्तजू जख्मी हुई,

आ! जरा तूं देख ले दिल का जहां॥
- देवेश

Saturday, May 2, 2009

गज़ल

एक अग्रज हैं। आत्मा से पत्रकार, पर पेशे से पत्रकारों की खबर रखने वाले (नाम सार्वजनिक करने की इजाजत नहीं ली है, सो गुस्ताखी माफ)। हैं भी, बड़े सामाजिक प्राणी (असामाजिक होने का कोई प्रमाण अभी तक मिला नहीं)। लिहाजा बड़े-बड़ों में उठना-बैठना होता है। बीते दिनों किसी समारोह में संभाग की आलातरीन प्रशासनिक अधिकारी को स्मृतिचिह्न भेंट करते उनकी फोटो अखबारों में छपी। बस, वहीं से इस गज़ल के मतले यानी पहले शेर ने जन्म लिया और बाकी की तुकबन्दी पेशे खिदमत है :-

फोटू-खबरें बड़ी-बड़ी जब दिखी हमें अखबार में।
समझ गए जी, नाम आपका भी है बड़ा बजार में ।।

वोट डालकर हमने खुद ही चाबी तुमको संभला दी।
लूटो, जमकर खाओ, जाओ, नेताजी सरकार में।।

हुआ कमाना बंद तुम्हारा अब चुप बैठो बाबूजी।
बुड्ढों को अब नहीं पूछता कोई भी घर-बार में।।

वफा, मुहब्बत लफ्ज गढ़े थे जाने कब के लोगों ने।
हमने इन सबको चुन डाला पैसे की दीवार में ।।

तुमसे नैन मिलाने की जो खता हुई ये सजा मिली।
चैन गंवाया, नींद लुटाई, जीना भी दुश्वार में ।।

मुझको तो अपने जैसे ही लोग यहां के दिखते हैं।
तुमको दिखता होगा अल्ला दुनिया के दीदार में।।

मां कहती है, तुझमें अक्कल जाने कब आएगी 'देव'।
काली रात उजाला ढूंढे काजल के कोठार में।।

- देवेश

Friday, March 20, 2009

प्रार्थना


मैं पानी तूं गंगाजल है,

मैं चिंगारी तूं पावक

तुझमें मिलूं बनूं तुझसा मैं

रहूं वृथा क्यों कहो विलग

जोड़-जोड़ अपने जैसा कर

मन। तन, जीवन में अमृत भर

आ-आ-आ सन्निकट आ

कर दे पावन आलिंगन कर

हे प्रभू! नहीं मैं तुझसा

और तुझसा भले ना हो पाऊं

और सत्य कहूं अपने मन का

तो तुझसा ना होना चाहूं

तूं मणिकांचन

अमरीक मणि

या स्वयं मणिधर का स्वामी

मैं कांच तुच्छ, टूटा-बिखरा

दर्शन में भी कहलाता पापी

तूं गुलाब, मैं महज शूल

तूं चंदन, मैं चरण धूल

तूं अमित तेज, मैं शुष्क दीप

पर तूं मोती गर

मेरा हृदय सीप

तूं रहे वहां दे छुअन मुझे

फिर अलग कहां पाऊं मैं तुझे

तो अब यह कर

बस राह दिखा

और अपना जान मुझे अपना

तेरे चरणों में प्राण तजूं

हे ईश! मेरा यही सपना...

Sunday, March 8, 2009

ग़ज़ल

मन मेरा कच्ची मटकी सा,

उलटा-पलटा फूट गया।

पड़ा हथोड़ा कड़े बैन का,

दर्पण सा मन टूट गया॥

नहीं समर्पण तेरा मांगा,

चाहा न्यौछावर होना।

कृत्रिमता के तीक्ष्ण ताप से,

प्रेम सरोवर खूट गया॥

भूल गए कसमें वादे सब,

अहं हुआ ऐसा हावी।

हाथों धरा हाथ अपनों का,

पल भर में ही छूट गया॥

उपहासों का पात्र बना मैं,

रख चुप्पी पर मुस्काया।

उसकी जब बारी आई वो,

ज़रा चुहल में रूठ गया॥

रखा भरोसा जिस-जिस पर भी,

उसी-उसी ने छला मुझे।

अपना हित अपना सुख देखा,

"देव" जमाना लूट गया॥

- देवेश

Sunday, March 1, 2009

तितली, बेटी और सुमन...!

देववाणी की शुरुआत के बाद आज पहली मर्तबा गद्य में लिख रहा हूं, पर बात ही कुछ ऐसी है कि लिखना ज़रूरी लग रहा है। दरअसल, बीते दो दिन में दो घटनाओं ने ऐसा जटिल सवाल खड़ा किया, जिसका जवाब ढूँढना मेरे बस में तो बिल्कुल भी नहीं। सोचा; आप से ही बतिया कर कुछ हल मिल जाये।

बीते शुक्रवार को राजस्थान के दूसरे बड़े शहर जोधपुर की एक अदालत ने सुमन नामक एक महिला के पति, सास-ससुर और दो जेठ को दस साल की सजा सुना दी। इन सभी ने सुमन को जिंदा जला दिया था। वैसे तो दहेज के लिए बेटियों का जलना-पिटना नई बात नहीं, लेकिन सुमन को जलाने वालों ने सिर्फ उसे ही नहीं, उसकी कोख में पल रही ढाई माह की जान को भी लालच की आंच में फूंक डाला। सात जन्म तक साथ निभाने और रक्षा करने का वचन भरने वाले पति ने उसके हाथ-पांव बांधकर आंगन में ला पटका तो सास-ससुर और जेठ ने केरोसीन डालकर ऐसे जला दिया, गोया सुमन कोई इंसान नहीं बल्कि घास की बनी मूरत थी और मालिकों ने गुस्से या मौज में उसे आग दिखा डाली। इस दौरान वे लोग ये तक भूल गए कि सुमन के गर्भ में एक शिशु की सासों का ताना-बाना भी बुना जा रहा है। ...और वह 'जीव' तो लेन-देन करने वाली इस दुनिया की रवायतें तक नहीं जानता। मगर, शिशु की किलकारी की बजाय उन्हें उस पैसे में खुशियां नज़र आ रही थी, जो सुमन लाती भी तो कमाकर नहीं, अपने पिता से मांग कर...।

खैर, ख़बर-नवीस के तौर पर अपने अखबार में यह ख़बर मुझे छापनी थी, सो दायित्व निभाया और जिस शनिवार को यह समाचार छपा उसी दोपहर घर के नजदीक ही एक अलहदा नजारा देखकर मन मुस्कुरा उठा। दरअसल, चार-पांच साल की एक बच्ची कहीं जा रही थी और मां के सुरक्षा संबंधी आदेश-निर्देश के कारण वह सड़क से लगती दीवार से चिपक कर चल रही थी। तभी एक खूबसूरत तितली कहीं से आई और बच्ची के इर्द-गिर्द मंडराने लगी। ऐसा लग रहा था मानो तितली ने उस नन्हीं बालिका को कोई फूल समझ लिया हो। उधर, वह नन्हीं कली तितली के इस स्नेह प्रदर्शन से डरकर ठिठक गई। यकीन जानिए यह दृश्य देखकर मुझे सीधे सुमन की याद हो आई और एक सवाल ने झिंझोड़ दिया कि फूल से भी संवेदनशील तितली और इससे भी अधिक सुकोमल होती हैं बेटियाँ; फ़िर बेटियों को लोग क्यूं जला देते हैं....???

हर तरफ ही देखिये मचता हुआ बवाल।

बेटी क्या इन्सां नहीं, अपना यही सवाल...।।।

Tuesday, February 24, 2009

दुनियादारी

आईने भी सीख गए हैं दुनियादारी।
जैसी चाहें दिखलाएं तस्वीर हमारी॥
गुरु, मित्र और वैद्य कभी कहते थे कड़वा।
अब देते हैं मीठी गोली बारी-बारी॥
लो गिरकिट के रंग; लोमड़ी सी चालाकी।
बदलो तुम भी बदल रही है दुनिया सारी॥
छल, बल से ही ताज धराते हैं सिर पर।
मक्कारी का नया नाम है दुनियादारी॥
दूर रखा कालिख से मुझको तूने मालिक।
'देव' झुकाए शीश, कहे तेरा आभारी॥
- देवेश

Thursday, February 19, 2009

मुक्तक

नेह के जल से तुम्हारे, चरण का अभिषेक कर लूँ।
मन मिला लूँ मन से तेरे, मन हमारे एक कर लूँ।।
कल्पना के चित्र सारे प्राण पा लें, जी उठें।
नाम बस तेरा पुकारूँ वचन का अतिरेक कर लूँ।।
- देवेश

Wednesday, January 28, 2009

कुंडली

अजर अमर यह आत्मा, नश्वर है संसार।
सत्कर्मों से स्वयं का, करो जीव उद्धार॥
करो जीव उद्धार, फेर पछताते जग में।
अवसर जाता बीत, अश्रु रह जाते दृग में॥
कहत "देव" कविराय, मर्म यह जानो बंधु
सभी झिडकते हाथ, पकड़ते करुनासिंधु॥
- देवेश

Saturday, January 17, 2009

हे सखी..!!!

नेह का धागा सुलगता, हे सखी!

क्रोध की अग्नि में जलता, हे सखी!!

मौन में नवगुण भले कहले कॊई!

मौन में विद्रोह पलता, हे सखी!!

चाल चौसर की चले शातिर कॊई!

समय ऎसी चाल चलता, हे सखी!!

क़द्र जानॊ वक्त की तॊ ठीक वरना!

वक्त बीते हाथ मलता, हे सखी!!

"देव" में दुर्गुण तॊ गुण भी देखिए!

क्या तुझे हर पल ही खलता, हे सखी!!

- देवेश