Saturday, October 23, 2010

मुलाकात

आज महीनों बाद लिखने का मन किया है। कुछ ज्ञात-अज्ञात कारण भी हैं इसके पीछे। वैसे भी यह काम किसी और के लिए साहित्य की सेवा, सरस्वती की उपासना, समाज को दिशा देने-दिखाने का प्रयास अथवा ऐसा ही कुछ हो सकता है, लेकिन मेरा ऐसे किसी उद्देश्य ऐसे किसी शब्द से कोई वास्ता नहीं है। मेरी तुकबंदियां मेरे लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी भावनाओं के इजहार का जरिया भर है। शब्दों के जाल में उलझना-उलझाना तब तक चलता रहेगा, जब तक मन में एहसास जिंदा हैं। फिलहाल इसे पढ़िए:-


चेहरे पे उसके अब वो उजाला नहीं रहा ।
मेहनत की रोटियों का निवाला नहीं रहा ।।


कल वो मिला था मुझको अर्से के बाद में ।
मिलने में मगर उसके रसाला नहीं रहा ।।

कुछ और फड़कती हुई खबर लाईए ।
'कलमाड़ियों' में कोई मसाला नहीं रहा ।।

- देवेश