मन मेरा कच्ची मटकी सा,
उलटा-पलटा फूट गया।
पड़ा हथोड़ा कड़े बैन का,
दर्पण सा मन टूट गया॥
नहीं समर्पण तेरा मांगा,
चाहा न्यौछावर होना।
कृत्रिमता के तीक्ष्ण ताप से,
प्रेम सरोवर खूट गया॥
भूल गए कसमें वादे सब,
अहं हुआ ऐसा हावी।
हाथों धरा हाथ अपनों का,
पल भर में ही छूट गया॥
उपहासों का पात्र बना मैं,
रख चुप्पी पर मुस्काया।
उसकी जब बारी आई वो,
ज़रा चुहल में रूठ गया॥
रखा भरोसा जिस-जिस पर भी,
उसी-उसी ने छला मुझे।
अपना हित अपना सुख देखा,
"देव" जमाना लूट गया॥
- देवेश
3 comments:
सुन्दर...!
रखा भरोसा जिस-जिस पर भी, उसी-उसी ने छला मुझे।
अपना हित अपना सुख देखा, "देव" जमाना लूट गया॥
इन पंक्तियों ने दिलों को छू लिया सर. साथ ही हमारी यादें भी ताजा कर दी. बहुत कुछ कहना है. पर फिलहाल शायद संभव नहीं है. भरोसा टूटने पर कितना दुख होता है. इसको तो वहीं महसूस कर सकता है. जिसका भरोसा किसी ने तोड़ा हो. उम्मीद करता हूं. आप कम शब्दों में ही हमारी बात को समझ गए होंगे.
bahut achi gajal hai..
Post a Comment