Saturday, May 2, 2009

गज़ल

एक अग्रज हैं। आत्मा से पत्रकार, पर पेशे से पत्रकारों की खबर रखने वाले (नाम सार्वजनिक करने की इजाजत नहीं ली है, सो गुस्ताखी माफ)। हैं भी, बड़े सामाजिक प्राणी (असामाजिक होने का कोई प्रमाण अभी तक मिला नहीं)। लिहाजा बड़े-बड़ों में उठना-बैठना होता है। बीते दिनों किसी समारोह में संभाग की आलातरीन प्रशासनिक अधिकारी को स्मृतिचिह्न भेंट करते उनकी फोटो अखबारों में छपी। बस, वहीं से इस गज़ल के मतले यानी पहले शेर ने जन्म लिया और बाकी की तुकबन्दी पेशे खिदमत है :-

फोटू-खबरें बड़ी-बड़ी जब दिखी हमें अखबार में।
समझ गए जी, नाम आपका भी है बड़ा बजार में ।।

वोट डालकर हमने खुद ही चाबी तुमको संभला दी।
लूटो, जमकर खाओ, जाओ, नेताजी सरकार में।।

हुआ कमाना बंद तुम्हारा अब चुप बैठो बाबूजी।
बुड्ढों को अब नहीं पूछता कोई भी घर-बार में।।

वफा, मुहब्बत लफ्ज गढ़े थे जाने कब के लोगों ने।
हमने इन सबको चुन डाला पैसे की दीवार में ।।

तुमसे नैन मिलाने की जो खता हुई ये सजा मिली।
चैन गंवाया, नींद लुटाई, जीना भी दुश्वार में ।।

मुझको तो अपने जैसे ही लोग यहां के दिखते हैं।
तुमको दिखता होगा अल्ला दुनिया के दीदार में।।

मां कहती है, तुझमें अक्कल जाने कब आएगी 'देव'।
काली रात उजाला ढूंढे काजल के कोठार में।।

- देवेश