Sunday, December 30, 2012

जनवरी 2011 के बाद पूरे दो साल बीत गए, न मैंने इस ब्लॉग की सुध ली और ना ही सृजनशीलता ने मेरी। कभी-कभार कुछ कागज़ पर उतरा भी तो मेरी स्वाभाविक लापरवाही और आलस ने खो दिया। आज 2012 का आखिरी दिन है, तो सोचा ब्लॉग के प्रति इतना निर्मोही होना भी ठीक नहीं। इसे बुरा न लग जाए, इसलिए ये रचना भेंट कर रहा हूँ। 
.....
लड़की...!
तुम मर गई?
अच्छा हुआ/ 
वरना ये वहशी समाज/
शारीरिक न सही/
शब्दों, मुद्राओं/
और तानों-फिकरों से/
रोज ही करता बलात्कार 
बार-बार, कई बार।
-
थपथपाने के बहाने/
सहलाकर पीठ/
दोगला, यह ठीट/
तुम्हारे जख्मों पर/
नमक ही तो डालता।
-
‘ये वही है...
इसके कपड़े देखो...
इसी ने होगा उकसाया...
इसे घर में रखो...’
कहते तुमको ही गलत।
-
और कह भी तो दिया/
किसी और ने नहीं/
तुम्हारी ही सरीखी/
महिला ने।
-
नजर, 

जो/
आती तुम्हारी तरफ/
क्या पाक - साफ होती?
-
कभी नहीं,
और तुम तब भी
तो मरती ही रहती
हर घड़ी, हर पल।
-
इसलिए, अच्छा हुआ
जो तुम मर गई लड़की...।

- देवेश

1 comment:

Ayodhya Prasad said...

Hum Sharminda Hain...Bahut si Baaton par.
Jo Honi Chahiye thee...
Aur
Jo Nahi Honi Chahiye Thee..

Un par bhee.
Aap ne likha to man aur andolit hona hi tha.
Shubh Kamnaye...is desh ko.