Sunday, January 3, 2010

क्यों कि आज मेरा जन्मदिन है...

आज बहुत दिनों बाद लिख रहा हूं। ...और वह भी ऐसा, जो आम तौर पर नहीं लिखता। लिखने की एक वजह यह भी कि आज वही दिन है, जो ढाई दशक पहले मुझे इस रंग बदलती दुनिया में अपने रंगों और अपनी कूंची के साथ छोड़ गया था। यानी जनवरी की ऐसी ही एक सर्द सुबह मैं भी लाखों-करोड़ों की भीड़ का अबोध हिस्सा बन गया था।
वैसे तो यह दिन हर बरस आता जा रहा है। अभी कितने साल तक और इसकी पुनरावृत्ति होगी, यह मैं नहीं जानता। जानना भी नहीं चाहता, लेकिन अब तक सालों-साल हुए बदलाव को पीछे मुड़कर देखूं तो यह एहसास जरूर पाता हूं कि अब सबकुछ वैसा तो नहीं रहा।
उम्र बढ़ी तो इसके मुताबिक शरीर ही नहीं, लोगों की अपेक्षाएं और मेरी जिम्मेदारियां भी बढ़ती गईं। इन्हें पूरा कर पाने में सफलता या विफलता की बात करने का साहस ना जुटा सकूं तो भी यह जरूर कह सकता हूं कि अपने तरीके से जीने की तमाम कोशिशों पर ये अपेक्षाएं और जिम्मेदारियां ही बेडिय़ों की मानिंद कसी हैं।
अगर कभी मन बचपन की ओर लौटने का करे, तो इन्हें एतराज। वय-सुलभ उद्दंडताओं पर भी इनका अंकुश और धारा के विपरीत चलकर कुछ कर लिया जाए तो सबसे बड़ा उलाहना भी इन्हीं का। बड़ा अजीब झमेला है इनका भी...।
कई बार याद आते हैं कॉलेज के वे दिन, जब अपने गांवनुमा शहर में शहरी होने की कोशिश करने वाले देहाती दोस्तों के साथ हम जन्मदिन की पार्टियां मनाया करते थे। बेशक तब ना केक होता था और ना ही गिफ्ट लेने-देने की भारी-भरकम औपचारिकता, लेकिन दोस्तों से मिलने वाला 'वीआईपी ट्रीटमेंट' ऐसा एहसास देता मानो जन्मदिन ना हो बंदे ने कोई तीर मार लिया हो। तब पार्टी के लिए बड़े होटल-रेस्टोरेंट नहीं, बल्कि सुरेश्वर (*) की पहाडिय़ां होती थी या जागनाथ के धोरे (*) । सारे दोस्त मिलकर पैसा जुटाते और उसी से मनता था हमारा जन्मदिन। कॉलेज छूटने के बाद जब कुछ कमाने लगे तो पार्टी का स्थान बदलकर रेस्टोरेंट हो गया और आपस में चंदा उगाहने के बजाय 'बर्थ-डे बॉय' पर ही आ गया पार्टी के खर्च का जिम्मा। फिर भी वह दिन कुछ खास होता था, सबके प्रेम, उमंग और उल्लास के कारण।
अब तो यह भी जाता रहा। अभी उम्र का हालांकि वो दौर नहीं है कि मौज-मस्ती करने पर आसपड़ोस वाले कोई अचरज जताए अथवा 'यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्ध माचरणीयं' यानी शुद्ध हो तो भी लोक-मर्यादाओं के विपरीत ना जाने की हिदायत दे, लेकिन व्यावसायिक व्यस्तताओं ने जीवन में मशीनी शोर इतना भर दिया है कि भावनाओं की कोमल ध्वनि अंदर ही घुटकर दम तोड़ देती है।
आज तो मुझे भी अपने जन्मदिन पर कोई खुशी जैसी बात महसूस नहीं हुई। मुझे लगता है कि मेरे जैसे दूसरों के साथ भी ऐसा ही होता होगा। किसी ने औपचारिक रूप से बधाई दी तो अजीब लगा। दोस्तों के फोन कम आए तो भी बुरा नहीं लगा। इसके लिए न तो किसी को उलाहना दिया और ना ही किसी से झगड़ा किया। कुल मिलाकर, आज का दिन भी आम दिन सा ही गुजर गया।
शायद उम्र के साथ आ रही परिपक्वता ने आंतरिक संवेदनाओं पर अतिक्रमण कर लिया है। आगे तो और भी ज्यादा हो सकता है। इसलिए आज के दिन एक संकल्प करने को जी चाहता है कि अपनी संवेदनाओं जिंदा रखने के लिए समय के साथ मिलने वाली कठोरता से से संघर्ष करते रहेंगे।
मुझे याद है पिछले साल की तीन जनवरी, जब मेरे एक अत्यंत करीबी मेरा जन्मदिन भूल गए। रात दस बजे के करीब उन्हें याद आया और उनकी बेचैनी की इंतिहा देखिए कि पहले तो वे खुद पर खूब नाराज हुए, खुद ही को भला-बुरा कहा और फिर रात बारह बजे जबरदस्ती मुझे अपने घर बुलाकर केक कटवाया।
मेरे खुदा, प्रेम का ऐसा निश्छल-अविरल झरना तूने मेरी किस्मत में लिखा, इसके लिए तेरा दिल से शुक्रिया। वरना..
क्या जन्म है, क्या मौत है ये बात सिर्फ आंख की।
किसी की आंख खुल गई, किसी की आंख लग गई।।
- देवेश
(*) जालोर शहर के निकट स्थित प्रसिद्ध शिवमंदिर

2 comments:

Love : God's blessings said...

देव जी,
जन्मदिन की बधाई. आपकी यादों से मिलकर अच्छा लगा. आप की शिकायते लाजिमी है, पर कुछ उल्लास भी लिख लिया कीजिये.

Unknown said...

gazzab ka likha hai sirji
badhai achchha likhne or janmdin donon ki